मंगलवार, 1 अगस्त 2023

अपनी यौन ऊर्जा (सेक्सुअल एनर्जी ) को शक्ति में कैसे बदलें ? How to convert your sexual energy into power?

अपनी यौन ऊर्जा  (सेक्सुअल एनर्जी ) को शक्ति में कैसे बदलें ? How to convert your sexual energy into power?

 

यौन ऊर्जा को शक्ति में बदलने के लिए विभिन्न तरीके हैं जो आपको शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर मदद कर सकते हैं। नीचे दिए गए कुछ उपाय आपकी यौन ऊर्जा को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं:

  1. स्वस्थ आहार: स्वस्थ और पौष्टिक आहार लेना यौन ऊर्जा को बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण है। प्रोटीन, विटामिन, मिनरल्स, और पूरे अनाजों के सेवन से आपके शरीर का संतुलन बना रहता है और यौन स्वास्थ्य को सुधारता है। विशेष रूप से विटामिन ई, विटामिन सी, जिंक, सेलेनियम, और ओमेगा-3 फैटी एसिड्स के स्रोत आपके यौन स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं।

  2. योग और व्यायाम: नियमित रूप से योग और व्यायाम करने से आपकी शक्ति और ऊर्जा बढ़ती है। प्राणायाम और ध्यान भी यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने और संतुलित करने में मदद कर सकते हैं।

  3. स्वस्थ नींद: पर्याप्त नींद लेना भी यौन ऊर्जा को बढ़ाने में मदद करता है। अन्य स्वास्थ्य लाभों के साथ-साथ यह आपके स्त्री और पुरुष शक्ति को भी बढ़ाता है।

  4. स्ट्रेस का प्रबंधन: स्ट्रेस को नियंत्रित करने के लिए मेधावी योग, ध्यान, या ब्रेथिंग एक्सरसाइज़ का अभ्यास करें। यौन ऊर्जा पर अतिरिक्त स्ट्रेस का असर होता है और इसे कम करने से आपका यौन स्वास्थ्य सुधर सकता है।

  5. विश्राम और आत्म-सम्मान: अपने दिनचर्या में समय से आत्म-सम्मान करें और विश्राम के लिए समय निकालें। अपने शरीर के संक्रमणात्मक प्रतिक्रिया को समझें और विश्राम लें जब आपको आवश्यकता हो।

  6. संतुलित संबंध: संतुलित और समर्थित संबंध भी यौन ऊर्जा को बढ़ाने में मदद करते हैं। संबंध में संवेदनशीलता, सम्मान, और सहयोग के भावनात्मक तत्व होने चाहिए।

यह सभी उपाय आपकी यौन ऊर्जा को शक्ति में बदलने में मदद कर सकते हैं। ध्यान रखें कि यौन ऊर्जा को समझने और नियंत्रित करने में समय लग सकता है, इसलिए धैर्य रखें और अपने स्वास्थ्य को प्रतिस्थापित करने के लिए नियमित रूप से उपाय करें। यदि आपको इसमें दिक्कत आ रही है, तो विशेषज्ञ के साथ संपर्क करना उचित होगा।

यौन ऊर्जा या सेक्सुअल एनर्जी एक महत्वपूर्ण और प्राकृतिक शक्ति है जो हमारे जीवन में सुख और संतोष लाने में मदद करती है। इसे शक्ति में बदलने के लिए कुछ उपाय निम्नलिखित हैं:

  1. स्वस्थ आहार: आपके खाने का प्रभाव आपके शरीर के और मस्तिष्क के शक्ति स्तर पर होता है। संतुलित और पौष्टिक आहार लेना महत्वपूर्ण है। फल, सब्जियां, अनाज, दालें, नट्स, बीज, और पर्याप्त पानी पीना आपके शरीर को स्वस्थ रखता है और यौन ऊर्जा में सुधार करता है। अधिक तरल पदार्थों जैसे अल्कोहल और कॉफ़ीन का सेवन कम करें क्योंकि ये यौन ऊर्जा को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं।

  2. योग और ध्यान: योग और ध्यान प्राकृतिक रूप से यौन ऊर्जा को बढ़ाते हैं और मन को शांत करते हैं। नियमित रूप से योग और ध्यान प्राकृतिक शक्ति को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

  3. व्यायाम: नियमित शारीरिक व्यायाम करने से यौन ऊर्जा का स्तर बढ़ता है। यह आपके शरीर की भद्दी को बढ़ाने और सेक्सुअल एनर्जी को बढ़ाने में मदद करता है।

  4. संतुलित जीवनशैली: अनियमित और अशांत जीवनशैली यौन ऊर्जा को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। नियमित नींद पूरी करें, तनाव को कम करें, और स्वस्थ संबंध बनाएं।

  5. संतुष्टि: संतुष्टि आपके जीवन में खुशियों को लाती है और यौन ऊर्जा को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। अपनी संतुष्टि को बढ़ाने के लिए आप प्रियजनों के साथ अच्छे समय बिताएं, कला और शौक में रुचि रखें और अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव करें।

  6. सही संबंध: संबंधों का महत्वपूर्ण योगदान होता है यौन ऊर्जा को शक्ति में बदलने में। साथी के साथ आपसी समझ, सम्मान और प्रेम के संबंध सेक्सुअल एनर्जी को बढ़ाते हैं।

 

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 48वीं विधि का क्या विवेचन है?
48-''प्रेम--आलिंगन में आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो''।

भगवान शिव 'ऊर्ध्वगमन' कीओर संकेत कर रहे है ;तो पहले हमें इस ऊर्ध्वगमन साधना के विषय में ज्ञान करना चाहिए।

क्या है प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग ?-

08 FACTS;-

1-भारतीय संस्कृति में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनाें मार्ग हैं।इसलिए ऊर्ध्वगमन साधना/कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है...

A-निवृत्ति मार्ग /श्रेय मार्ग B-प्रवृत्तिमार्ग

निवृत्ति मार्ग में प्राणकी गति उलटी करके इन्द्रियों में मन न लगाकर कर्म करते रहता है-योगी। प्रवृत्ति मार्ग में इन्द्रियों में मन लगाकर कर्मेन्द्रियों से कार्य करता रहता है-भोगी । बहुत कम लोगों की प्रवृत्ति
निवृत्ति मार्ग /श्रेय मार्ग में होती है जबकि प्रेय व सांसारिक मार्ग, धन व सम्पत्ति प्रधान जीवन में सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है। जहां प्रवृत्ति होनी चाहिये वहां नहीं है और जहाँ नहीं होनी चाहिये, वहां प्रवृत्ति होती है। यही मनुष्य जीवन में दुःख का प्रमुख कारण है।हनुमान जी निवृत्ति और भरत जी प्रवृत्ति मार्ग के आचार्य हैं। इन दोनों ही मार्गों में समानता यह है कि दोनों का लक्ष्य प्रभु को प्राप्त करना है।

2-श्रेय मार्ग में प्राणायाम और योग ,जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा ,उड्यान बंध तथा कुम्भक, प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है।ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित, विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है ।यह साधना उन लोगों के लिए उपयुक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं ।गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है।परन्तु जहाँ तक साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी ;क्या स्त्री और क्या पुरुष

सभी समान अधिकार रखते हैं।ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए भी साधनारत होने का मार्ग है।निवृत्ति मार्ग में जो कार्य

शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में गृहस्थों के लिए रमण मुद्रा से संपन्न किया गया शेष बंध और कुम्भक समान रहे ।

3-इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे ;वहां प्रवृत्ति मार्ग साधक दीर्घ रमण का उपयोग करने लगे।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार रमण मुद्राओं वाला बन गया।

रमण के कारण इस साधना में पति- पत्नी ,दोनों का बराबर का योगदान रहा ।साधक को यम व् नियम का तथा आसन प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती

है।मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा ।अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा अति आवश्यक है ।कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है ।

4-ऊर्ध्व =अतो ऊर्ध्व > यहाँ से ऊपर के अर्थ में ऊर्ध्वरेता वह होता है जो इस जन्म में मृत्यु हो जाने के बाद के अपने अगले जन्म (या मुक्ति) के लिए संकल्प कर सकता है ।पिप्पलाद और याज्ञवल्क्य दोनों ही ऋषि थे किन्तु पिप्पलाद ऊर्ध्वरेता थे और मृत्यु से भयभीत नहीं थे जबकि याज्ञवल्क्य का जीवन-मृत्यु पर ऐसा नियंत्रण नहीं था, जैसा पिप्पलाद का था, इसलिए महत्-तत्व

में प्रतिष्ठित होने से पिप्पलाद को महर्षि कहा जा सकता है। अगर पवित्र विचारों के जरिए ऊर्जा को ओजस या आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल लिया जाए तो यह किसी तरह का दमन नहीं है बल्कि एक सकारात्मक और स्थानांतरण की प्रक्रिया है। काम -ऊर्जा पर अपना नियंत्रण स्थापित करके इसे संचित करके दूसरी तरफ मोड़ देना है। धीरे-धीरे आप इसे ओजस शक्ति में भी तब्दील कर लेंगे। जैसे ऊष्मा प्रकाश और विद्युत में परिवर्तित कर ली जाती है वैसे ही भौतिक ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में बदला जा सकता है। रासायनिक पदार्थों में होने वाले परिवर्तनों की तरह काम -ऊर्जा को साधना के जरिए आध्यात्मिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है।

5-इस प्रक्रिया से गुजरते हुए आत्मा के स्तर को ऊपर उठाना, शुद्ध विचारों की तरफ बढ़कर ऊर्जा को ओजस शक्ति में परिवर्तित होकर दिमाग में संचित होती जाती है। इस संचित ऊर्जा को आप बड़े से बड़े कामों में लगा सकते हैं। अगर आपको बहुत क्रोध आता है या आपके पास शारीरिक बल ज्यादा है तो उसे भी ओजस शक्ति में ट्रांसफॉर्म किया जा सकता है। जिसके दिमाग में ओजस शक्ति संचित हुई रहती है, उसकी मानसिक ताकत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। वह बहुत ही बुद्धिमान हो जाता है। उसके चेहरे के पास एक दैवीय तेज झलकने लगता है. वह कुछ शब्द बोलकर ही दूसरों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है।उसका व्यक्तित्व फिर सामान्य नहीं रह जाता है, वह आसाधारण हो जाता है।

6-आदि शंकराचार्य, ईसा मसीह आदि महापुरुष जीवन भर ब्रह्मचारी रहे।ऊँचे उठे हुए बुद्धिजीवी लोग अधिकतर संयमी जीवन ही बिताने की चेष्टा किया करते हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं ।संयम से तात्पर्य मात्र शारीरिक ही नहीं, मानसिक व आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य से भी है।

यह एक सत्य है कि भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का नुकसान कर देती है। यह रोग युवावस्था में ही अधिक लगता है।यद्यपि उठती आयु में शारीरिक शक्ति ज्यादा होती है, साथ ही कुछ-न-कुछ जीवन तत्व का नव निर्माण होता रहता है।इसलिए उसका बुरा असर शीघ्र नहीं दिखलाई पड़ता; लेकिन युवावस्था के ढलते ही इसके बुरे परिणाम सामने आने लगते हैं।

7-निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में गृहस्थों के लिए रमण मुद्रा से संपन्न किया गया शेष बंध और कुम्भक समान रहे ।इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे ;वहां प्रवृत्ति मार्ग साधक दीर्घ रमण का उपयोग करने लगे।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार रमण मुद्राओं वाला बन गया ।अमेरिकी प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. बेनीडिक्ट लुस्टा ने अपनी पुस्तक 'नेचुरल लाइफ' में कहा है कि जितने अंशों तक जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से रक्षा और प्राकृतिक जीवन का अनुसरण करता है, उतने अंशों तक वह विशेष महत्व का कार्य कर सकता है।
8-ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थत् ’काम’ हो जाता है जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है ।तथा उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है।लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ

पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है ।ब्रह्मचर्य काम -ऊर्जा का विरोध नहीं है, बल्कि इसका ट्रांसफॉर्मेशन है।नीचे की तरफ बह जाना काम ऊर्जा का अधोगमन है।ब्रह्मचर्य /ऊर्ध्वरेता ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है।

कुंडलिनी ऊर्ध्वगमन क्या है?-
03 FACTS;-
1-पुरुष का ऊर्जा केंद्र मूलाधार है जबकि स्त्री का केंद्र ह्दय प्रधान है ! पुरुष को मूलाधार से ऊर्जा उठा कर ह्द्य्गामी बनना होता है।जबकि स्त्री को और गहरे ह्दय में ही ठहराव करना पड़ता है।मूलाधार ऊर्जा जब पुरुष के आगे के भाग से उपर उठती है तब संसार की माया पैदा करती है।आगे से उपर उठने वाली कुंडलिनी ऊर्जा पुरुष प्रधान होती है।जब काम के रूप में बहती है तो काम सुख कहलाती है और जब मूलाधार ऊर्जा पीछे रीढ़ से उपर उर्ध्गमन होती है तो उसे योग ,अध्यात्म, दर्शन
या धर्म की यात्रा समझ सकते है या सूक्ष्म जगत की यात्रा समझ सकते है।जब मूलाधार ऊर्जा आगे से उपर उठती है तब वह दस प्रकार की प्रकृति बनाती है काम ,क्रोध, मोह ,लोभ इत्यादि।कई जन्मो तक प्रयास करते रहो; परंतु आगे से जो ऊर्जा उपर उठती है ;उसमे संसारी के गुण ही प्रकट होंगे और जब ऊर्जा पीछे से उर्द्ध्गमन होगी तब देवतत्व ,देवगुण विकसित होते है।पीछे से ऊर्जा सूक्ष्म रूप में उठती है और काम और अर्थ के लिए ऊर्जा जड़ता के रूप में उठती और बहती है।
2-अधिकतर बुद्धिमान लोग संसार में अर्थ ,प्रसिद्धि ,पद पाने के लिए योग ,अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहते है लेकिन भूल जाते है कि योग का मार्ग और संसार पाने के लिए ..ऊर्जा तो एक ही है। जब मूलाधार की ऊर्जा रीढ़ से उपर उठती है तब स्वत ही आगे से ऊर्जा उठना कम हो जाती है। जब ऊर्जा को उर्ध्गमन मिलता है तब काम को, संसार के लिए धीरे धीरे ऊर्जा का पोषण
मिलना कम हो जाता है।इसलिए केवल काम ,क्रोध ,मोह,भोग का विरोध करने से कभी भी उर्ध्गमन नही मिलता है।क्योकि काम,क्रोध, मोह के विरोध में भी वही ऊर्जा काम आती है जो काम,क्रोध ,मोह में काम आती है। इसलिए बिना विरोध के, ऊर्जा के बहाव को नया मार्ग देने से योग,अध्यात्म की दिशा मिलती है।

3-जो ऊर्जा रीढ़ से उर्ध्गमन होती है वह स्त्री ऊर्जा ,पोजिटिव ऊर्जा बनकर उठती है ।तब पुरुष के अंदर स्त्री गुणों का विकास होता है और स्त्री के अंदर पुरुष गुणों का विकास होता हैअर्थात पुरुष व् स्त्री दोनों का संतुलन बनता है उसे अर्द्ध नारीश्वर
होना,या शिवशक्ति बनना समझ सकते है।वास्तव में ,हमारे शरीर में ,इड़ा पिंगला सुषुम्ना का एक सर्किट है ;अथार्थ शिव शक्ति और निराकार का एक सर्किट है। जो तभी पूरा होता है जब हम दोनो की साधना करे। यदि शिव की भक्ति करी है ,तो शक्ति की भक्ति करो।और शक्ति की भक्ति करी है तो शिव की भक्ति करो ;तभी सर्किट पूरा होगा। विशेष बात यह है की शक्ति, शिव की साधना से प्रसन्न होती हैऔर शिव शक्ति की साधना से।
उभय लिंग सत्ता क्या है?(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार);-
13 FACTS;-
1-कुण्डलिनी महाशक्ति को ‘काम कला’ कहा गया है। इस तत्व को समझने के लिये हमें अधिक गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और अधिक सूक्ष्म दृष्टि से देखना पड़ेगा। नर-नारी के बीच चलने वाली ‘काम क्रीड़ा’ और कुण्डलिनी साधना में सन्निहित ‘काम कला’ में भारी अन्तर है। मानवीय अन्तराल में उभयलिंग विद्यामान हैं।हर व्यक्ति अपने आप में आधा नर और आधा नारी है।
अर्ध नारी नटेश्वर भगवान् शंकर को चित्रित किया गया है। श्रीकृष्ण और श्रीराधा का भी ऐसा ही एक समन्वित रूप चित्रों में दृष्टिगोचर होता है। पति-पत्नी दो शरीर एक प्राण होते हैं। यह इस चित्रण का स्थूल वर्णन है। सूक्ष्म संकेत यह है कि हर व्यक्ति के भीतर उभय लिंग सत्ता विद्यमान है। जिसमें जो अंश अधिक होता है उसकी रुझान उसी ओर ढुलकने लगती है।
2-उसकी चेष्टायें उसी तरह की बन जाती हैं। कितने ही पुरुषों में नारी जैसा स्वभाव पाया जाता है और कई नारियों में पुरुषों जैसी प्रवृत्ति, मनोवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति बढ़ चले तो इसी जन्म में शारीरिक दृष्टि से भी लिंग परिवर्तन हो सकता है। अगले जन्म में लिंग बदल सकता है अथवा मध्य सन्तुलन होने से नपुंसक जैसी स्थिति बन सकती है।नारी लिंग का सूक्ष्म स्थल जननेन्द्रिय मूल है। इसे ‘योनि’ कहते हैं। मस्तिष्क का मध्य बिन्दु ब्रह्मरंध्र-‘लिंग’ है। इसका प्रतीक प्रतिनिधि सुमेरु-मूलाधार चक्र
के योनि गह्वर में ही काम बीज के रूप में अवस्थित है।’ अर्थात् एक ही स्थान पर वे दोनों विद्यमान है ,पर प्रसुप्त पड़े हैं। उनके जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। इन दोनों के संयोग की साधना ‘काम-कला’ कही जाती है। इसी को कुण्डलिनी जागरण की भूमिका कह सकते हैं। शारीरिक काम सेवन-इसी आध्यात्मिक संयोग प्रयास की छाया मात्र है। आन्तरिक काम शक्ति को दूसरे शब्दों में महाशक्ति—महाकाली कह सकते हैं।
3-एकाकी नर या नारी भौतिक जीवन में अस्त-व्यस्त रहते हैं। आन्तरिक जीवन में उभयपक्षी विद्युत शक्ति का समन्वय न होने से सर्वत्र नीरस नीरवता दिखाई पड़ती है। इसे दूर करके समग्र समर्थता एवं प्रफुल्लता उत्पन्न करने के लिये कुण्डलिनी साधना की जाती है। इसी संदर्भ में शास्त्रों में साधना विज्ञान का जहां उल्लेख किया है वहां काम क्रीड़ा जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः यह आध्यात्मिक काम कला की ही चर्चा है। योनि-लिंग, काम बीज, रज, वीर्य, संयोग आदि शब्दों में उसी अन्तःशक्ति के जागरण की विधि व्यवस्था सन्निहित है—
4-शिव संहिता के अनुसार;-
''अपने शरीर में अवस्थित शिव को त्याग कर जो बाहर-बाहर पूजते फिरते हैं। वे हाथ के भोजन को छोड़कर इधर-उधर से प्राप्त करने के लिये भटकने वाले लोगों में से हैं। आलस्य त्यागकर ‘आत्म-लिंग’ शिव की पूजा करे। इसी से समस्त सफलताएं मिलती हैं।''
5-मूलाधार में कुण्डलिनी शक्ति शिव लिंग के साथ लिपटी हुई प्रसुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी रहती है। समुन्नत स्थिति में इसी मूल स्थिति का विकास हो जाता है। मूलाधार मल- मूत्र स्थानों के निष्कृष्ट स्थान से ऊँचा उठकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजता है। छोटा सा शिव लिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है।छोटे से कुण्ड को मान सरोवर रूप धारण करने का अवसर मिलता है प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिव कंठ से जा लिपटती है और शेषनाग के परिक्रमा रूप में दृष्टि गोचर
होती है।मुँह बन्द कली खिलती है और खिले हुए शतदल कमल के सहस्रार के रूप में उसका विकास होता है। मूलाधार में तनिक सा स्थान था, पर ब्रह्मरंध्र का विस्तार तो उससे सौ गुना अधिक है।
6-सहस्रार को स्वर्ग लोक का कल्पवृक्ष ;प्रलय काल में बचा रहने वाला अक्षय वट; गीता का ऊर्ध्व मूल अधःशाखा वाला ;अश्वत्थं- भगवान बुद्ध को महान् बनाने वाला बोधि वृक्ष कहा जा सकता है। यह समस्त उपमाएँ ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज की ही है। वह अविकसित स्थिति में मन बुद्धि के छोटे मोटे प्रयोजन पूरे करता है, पर जब जागृत स्थिति में जा पहुँचता है तो सूर्य के समान दिव्य सत्ता सम्पन्न बनता है। उसके प्रभाव से व्यक्ति और उसका संपर्क क्षेत्र दिव्य आलोक से भरा
पूरा बन जाता है।ऊपर उठना पदार्थ और प्राणियों का धर्म है। ऊर्जा का ऊष्मा का स्वभाव ऊपर उठना और आगे बढ़ना है। प्रगति का द्वार बन्द रहे तो कुण्डलिनी शक्ति कामुकता के छिद्रों से रास्ता बनाती है और पतनोन्मुख रहती है। किन्तु यदि ऊर्ध्वगमन का मार्ग मिल सके तो उसका प्रभाव परिणाम प्रयत्न कर्ता को परम तेजस्वी बनने और अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकने की क्षमता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
7-रुद्रयामल तंत्र के अनुसार;-
''महाविन्दु उसका मुख है। सूर्य चन्द्र दोनों स्तन हैं, सुमेरु उसकी अर्ध कला है, पृथ्वी उसकी शोभा है। चर-अचर सब में काम कला के रूप में जगती है। सबमें काम कला होकर व्याप्त है। यह गुह्य से भी गुह्य है।''
8-गोरक्ष पद्धति के अनुसार;-
''गुदा स्थान में जो चतुर्दल कमल विख्यात है उसके मध्य में त्रिकोणाकार योनि है जिसकी वन्दना समस्त सिद्धजन करते हैं, पंचाशत वर्ण से बनी हुई कामाख्या पीठ कहलाती है।उस योनि के मध्य पश्चिम की ओर अभिमुख ‘महालिंग’है। उसके मस्तक में मणि की तरह प्रकाशवान बिम्ब है। जो इस तथ्य को जानता है वही योगविद् है।लिंग स्थान से नीचे, मूलाधार कर्णिका में अवस्थित तपे सोने के समान आभा वाला ,विद्युत जैसी चमक से युक्त ,जो त्रिकोण है उसी को ‘कालाग्नि’ कहते हैं।इसी विश्वव्यापी परमज्योति में तन्मय होने में महायोग की समाधि प्राप्त होती है और जन्म-मरण से छुटकारा मिलता है।
इसी त्रिकोण विषय समाधि में अनन्त विश्व में व्याप्त होने वाली परम ज्योति प्रकट होती है वही कालाग्नि रूप है जब योगी ध्यान, धारण, समाधि—द्वारा उक्त ज्योति देखने लगता है तब उसका जन्म मरण नहीं होता।इन दोनों का परस्पर अति घनिष्ठ सम्बन्ध
है।वह सम्बन्ध जब मिला रहता है तो आत्म-बल समुन्नत होता चला जाता है और आत्मशक्ति सिद्धियों के रूप में विकसित होती चलती है। जब उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो मनुष्य दीन-दुर्बल, असहाय-असफल जीवन जीता है। कुंडलिनी रूपी योनि और सहस्रार रूपी लिंग का संयोग मनुष्य की आन्तरिक अपूर्णता को पूर्ण करता है। साधना का उद्देश्य इसी महान प्रयोजन की पूर्ति करता है। इसी को शिव शक्ति का संयोग एवं आत्मा से परमात्मा का मिलन कहते हैं। इस संयोग का वर्णन साधना क्षेत्र में किया गया है।''
9-त्रिपुरीपनिषद के अनुसार;-
''भग शक्ति है। काम रूप ईश्वर भगवान है। दोनों सौभाग्य देने वाले हैं। दोनों की प्रधानता समान है। दोनों की सत्ता समान है।
दोनों समान ओजस्वी हैं।उनकी अजरा शक्ति विश्व का निमित्त कारण है।शिव और शक्ति के सम्मिश्रण को शक्ति का उद्भव आधार माना गया है। इन्हें बिजली के ‘धन’ और ‘ऋण’ भाग माना जाना चाहिये। बिजली इन दोनों वर्गों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है। अध्यात्म विद्युत् के उत्पन्न होने का आधार भी इन दोनों शक्ति केन्द्रों का संयोग ही है। शिव पूजा में इसी आध्यात्मिक योनि- लिंग का संयोग प्रतीक रूप से लिया गया है।''
10-लिंग पुराण के अनुसार;-
‘'लिंग वेदी’ देवी उमा है और लिंग साक्षात् महेश्वर हैं।वह महादेवी भग संज्ञा वालीऔर इस जगत् की धात्री हैं तथा लिंग रूप
वाले शिव की त्रिगुणा प्रकृति रूप वाली है। हे द्विजोत्तमो! लिंग रूप वाले भगवान् शिव नित्य ही भग से युक्त रहा करते हैं और इन्हीं दोनों से इस जगत् की सृष्टि होती है। लिंग स्वरूप शिव स्वतः प्रकाश रूप वाले, हैं और यह माया के तिमिर से ऊपर
विद्यमान रहा करते हैं''कुण्डलिनी साधना इस प्रकार आत्मा के उभय पक्षी लिंगों का समन्वय सम्मिश्रण ही है। इसकी जब जागृति होती है तो रोम-रोम में अन्तःक्षेत्र के प्रत्येक प्रसुप्त केन्द्र में हलचल मचती है और आनन्द उल्लास का प्रवाह बहने लगता है।
11-इस समन्वय केन्द्र—काम बीज का वर्णन इस प्रकार मिलता है ..शक्ति तंत्र के अनुसार;-
'स्वयंभू लिंग से लिपटी हुई कुण्डलिनी महाशक्ति का ध्यान श्यामा सूक्ष्मा सृष्टि रूपा, विश्व को उत्पन्न और लय करने वाली,
विश्वातीत, ज्ञान रूप ऊर्ध्ववाहिनी के रूप में करें।वहीं ब्रह्म डाकिनी शक्ति है। कर्णिका में त्रिकोण है। इसके मध्य में एक सूक्ष्म
विवर है। रक्त आभा वाला काम बीज ,स्वयंभू ,अधोमुख महालिंग यहीं है।'' एक ही शरीर में विद्यमान इन ‘उभय’ रसों का वर्णन साधना विज्ञानियों ने इस प्रकार किया है...स्थूल शरीर में नारी का प्रजनन द्रव ‘रज’ कहलाता है। नर का उत्पादक रस ‘वीर्य’ है। सूक्ष्म शरीर में इन दोनों की प्रचुर मात्रा एक ही शरीर में विद्यमान है। उनके स्थान निर्धारित हैं। इन दोनों के पृथक रहने के कारण जीवन में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होती, पर जब इनका संयोग होता है तो जीवन पुष्प का पराग मकरन्द परस्पर मिलकर फलित होने लगता है और सफल जीवन की अगणित सम्भावनाएं प्रस्फुटित होती हैं।
12- ध्यान बिन्दु उपनिषद् के अनुसार;-
''बिन्दु दो प्रकार का होता है—एक तो पाण्डु वर्ग जिसे शुक्र कहते हैं और दूसरा (लोहित) रक्त
वर्ण जिसे महारज कहते हैं।सहस्रार से क्षरित गलित होने पर जब वीर्य योनि स्थान पर ले जाया जाता है तो वहां कुण्डलिनी अग्नि कुण्ड में गिरकर जलता हुआ वह वीर्य योनि मुद्रा के अभ्यास से हठात् ऊपर चढ़ा लिया जाता है और प्रचण्ड तेज के रूप में परिणत होता है यही आध्यात्मिक काम सेवन एवं गर्भ धारण है।''
13-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार;-
''शारीरिक काम सेवन की तुलना में आत्मिक काम सेवन असंख्य आनन्ददायक है। शारीरिक काम-क्रीड़ा को विषयानन्द और आत्मरति को ब्रह्मानन्द कहा गया है। विषयानन्द से ब्रह्मानन्द का आनन्द और प्रतिफल कोटि गुना है। शारीरिक संयोग से शरीर धारी सन्तान उत्पन्न होती है। आत्मिक संयोग प्रचण्ड आत्मबल और विशुद्ध विवेक को उत्पन्न करता है। उमा, महेश विवाह के उपरांत दो पुत्र प्राप्त हुए थे। एक स्कन्द (आत्मबल) दूसरा गणेश (प्रज्ञा प्रकाश) ।कुण्डलिनी साधक इन्हीं दोनों को अपने आत्म
लोक में जन्मा बढ़ा और परिपुष्ट हुआ देखता है।स्थूल काम सेवन की ओर से विमुख होकर यह आत्म रति अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सकती है। इसलिये इस साधना में शारीरिक ब्रह्मचर्य की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है।और वासनात्मक मनोविचारों से बचने का निर्देश दिया गया है। शिवजी द्वारा तृतीय नेत्र तत्व विवेक द्वारा स्थूल काम सेवन को भस्म करना—उसके सूक्ष्म शरीर को अजर-अमर बनाना इसी तथ्य का अलंकारिक वर्णन है तथा शारीरिक काम सेवन से विरत होने
की और आत्म रति में संलग्न होने की प्रेरणा है।काम दहन के पश्चात् उसकी पत्नी रति की प्रार्थना पर शिवजी ने काम को अशरीरी रूप से जीवित रहने का वरदान दिया था और रति को विधवा नहीं होने दिया था परन्तु उसे आत्म रति बना दिया था। वासनात्मक अग्नि का कालाग्नि के रूप में परिणत होने का प्रयोजन भी यही है''।

NOTE;-

जमीन पर फैले हुए पानी की भाप ऐसे ही उड़ती और बिखरती भटकती रहती है, पर यदि उसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सके तो भाप द्वारा भोजन पकाने से लेकर रेल का इंजन चलाने जैसे असंख्यों उपयोगी काम लिये जा सकते हैं।उसी प्रकार काम शक्ति के उच्चस्तरीय सृजनात्मक प्रयोजन अनेकों हैं ।कलात्मक गतिविधियों में- काव्य जैसी कल्पना ;सम्वेदनाओं में - दया, करुणा एवं उदार आत्मीयता की साकार बनाने वाली सेवा साधना आदि।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 48;-

13 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

1-यह पहला सूत्र कहता है: ‘’ प्रेम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’हमारा प्रत्येक कोश ईड़ा और पिंगला के मिलन से ही निर्मित हुआ है।यही कारण है कि हम जीवन भर एक दूसरे को खोजा करते है और अधूरा महसूस करते है।ईड़ा और पिंगला का वास्तिविक मिलन क्या है और कैसे हो सकता है इस सूत्र में यही बताया गया है।

2-प्रवृत्तिमार्ग के गृहस्थ और-निवृत्ति मार्ग /श्रेय मार्ग के योगी के 'ऊर्ध्वगमन' में सारा फर्क है, भेद है। साधारण गृहस्थ काम-कृत्य,को अपने को तनाव-मुक्त करने का उपाय मानते है। ऊर्जा की अधिकता तनाव पैदा करती है।और तुम्हें लगता है कि उसे फेंकना जरूरी है। जब वह ऊर्जा बह जाती है तो तुम कमजोरी अनुभव करते हो। और तुम उसी कमजोरी को विश्राम मान लेते हो। क्योंकि ऊर्जा की बाढ़ समाप्त हो गई, इसलिए तुम्हें विश्राम मालूम पड़ता है।लेकिन यह विश्राम नकारात्मक

विश्राम है।अगर सिर्फ ऊर्जा को बाहर फेंककर तुम विश्राम प्राप्त करते हो तो यह विश्राम बहुत महंगा है।और यह सिर्फ शारीरिक विश्राम होगा। वह गहरा नहीं होगा ;वह आध्यात्मिक नहीं होगा।यह पहला सूत्र कहता है कि अंत के लिए

मत सोचो ,आरंभ में बने रहो।मिलन कृत्य के दो भाग है: आरंभ और अंत। तुम आरंभ के साथ रहो। आरंभ का भाग ज्यादा विश्राम पूर्ण है। ज्यादा उष्ण है। लेकिन अंत को बिलकुल भूल जाओ।

3-तीन संभावनाएं है। दो प्रेमी ,प्रेम में तीन आकार या ज्यामितिक आकार निर्मित कर सकते है। एक आकार चतुर्भुज है, दूसरा त्रिभुज है, और तीसरा वर्तुल/सर्किल है।अल्केमी और तंत्र की भाषा में काम -क्रोध का बहुत पुराना विश्लेषण है। 'चतुर्भुजी

मिलन' अथार्त उसमे चार कोने है,क्योंकि तुम दो हिस्सों में बंटे हो। तुम्हारा एक हिस्सा विचार करने वाला है और दूसरा हिस्सा भावुक हिस्सा है। वैसे ही तुम्हारा साथी भी दो हिस्सों में बंटा है। तुम चार व्यक्ति हो ;दो नहीं। चार व्यक्ति प्रेम कर रहे है। यह एक भीड़ है, और इसमें वस्तुत: प्रगाढ़ मिलन की संभावना नहीं है। इस मिलन के चार कोने है और मिलन झूठा है। वह मिलन जैसा मालूम होता है ;लेकिन मिलन है नहीं। इसमें प्रगाढ़ मिलन की कोई संभावना भी नहीं है। क्योंकि तुम्हारा गहन भाग दबा पडा है। केवल दो सिर, दो विचार की प्रक्रियाएं मिल रही है।भाव की प्रक्रियाएं अनुपस्थित है। वे दबी छिपी है।

4-दूसरा मिलन त्रिभुज जैसा होगा। तुम दो हो, आधार के कोने और किसी क्षण अचानक तुम दोनों एक हो जाते हो—त्रिभुज के तीसरे कोने की तरह। किसी आकस्मिक क्षण में तुम्हारी दूरी मिट जाती है।और तुम एक हो जाते है। लेकिन तीसरा मिलन

सर्वश्रेष्ठ है और यह वास्तिविकमिलन है या तांत्रिक मिलन है। इसमें तुम एक वर्तुल हो जाते हो, इसमें कोने नहीं रहते। और यह मिलन क्षण भर के लिए नहीं है, वस्तुत: यह मिलन समयातीत है। उसमें समय नहीं रहता और यह मिलन तभी संभव है जब तुम ऊर्जा नहीं फेंकते हो। अन्यथा यह त्रिभुजीय मिलन हो जाएगा। क्योंकि ऐसे में संपर्क का बिंदु, मिलन का बिंदु ... खो जाता है।आरंभ के साथ रहो, अंत की फिक्र मत करो।

5- इस आरंभ में कैसे रहा जाए? इस संबंध में बहुत सी बातें ख्याल में लेने जैसी है। पहली बात कि मिलन कृत्य को कहीं जाने का, पहुंचने का माध्यम मत बनाओ। मिलन को साधन की तरह मत लो, वह आपने आप में साध्य है। उसका कहीं लक्ष्य नहीं है, वह साधन नहीं है। और दूसरी बात कि भविष्य की चिंता मत लो, वर्तमान में रहो। अगर तुम मिलन के आरंभिक भाग में ,वर्तमान में नहीं रह सकते, तब तुम कभी वर्तमान में नहीं रह सकते। क्योंकि इसकी प्रकृति ही ऐसी है कि तुम वर्तमान में फेंक दिए जाते हो।

6-तो वर्तमान में रहो। दो आत्माओं के मिलने का आनंद लो। और एक दूसरे में खो जाओ ...एक हो जाओ। भूल जाओ कि तुम्हें कहीं जाना है। वर्तमान क्षण में जीओं, जहां से कहीं जाना नहीं है। और एक दूसरे से मिलकर एक हो जाओ। उष्णता और प्रेम वह स्थिति बनाते है जिसमें दो व्यक्ति एक दूसरे में पिघलकर खो जाते है। यही कारण है कि यदि प्रेम न हो,और तुम दूसरे में डूब नहीं रहे हो;तो इसका अर्थ है कि तुम दूसरे का उपयोग कर रहे हो।केवल प्रेम के साथ ही तुम दूसरे में डूब सकते हो।

आरंभ का यह एक दूसरे में डूब जाना अनेक अंतदृष्टियां प्रदान करता है।तब दो शरीर,दो ऊर्जाओं के बीच एक गहन

मौन मिलन घटित होता है। और तब तुम घंटों साथ रह सकते हो। यह समय के साथ-साथ गहराता जाता है।

7-लेकिन सोच-विचार मत करो, वर्तमान क्षण में प्रगाढ़ रूप से विलीन होकर रहो। वही समाधि बन जाती है। और अगर तुम इसे जान सके, इसे अनुभव कर सके, इसे उपलब्ध कर सके तो तुम्हारा कामुक चित अकामुक हो जाएगा। एक गहन ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। मिलन से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है।यह वक्तव्य विरोधाभासी मालूम होता है कि मिलन से

ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि हम सदा से सोचते आए है कि अगर किसी को ब्रह्मचारी रहना है तो उसे विपरीतलिंगी के सदस्य को नहीं देखना चाहिए। उससे नहीं मिलना चाहिए। उससे सर्वथा बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। लेकिन उस हालत में एक गलत किस्म का ब्रह्मचर्य घटित होता है।तब चित विपरीतलिंगी के संबंध में सोचने में संलग्न हो जाता है। जितना ही तुम दूसरे से बचोगे उतना ही ज्यादा उसके संबंध में सोचने को विवश हो जाओगे।

8-तंत्र कहता है कि बचने की, भागने की चेष्टा मत करो, बचना संभव नहीं है। अच्छा है कि प्रकृति को ही उसके अतिक्रमण का साधन बना लो। लड़ों मत ;प्रकृति के अतिक्रमण के लिए प्रकृति को स्वीकार करो।अगर तुम अपने साथी के साथ,

इस मिलन के अंत की फिक्र किए बिना लंबा जा सके ;तो तुम आरंभ में ही बने रहे सकते हो।शिखर पर जाकर तुम ऊर्जा खो सकते हो। ऊर्जा के खोने से गिरावट आती है। कमजोरी पैदा होती है। तुम उसे विश्राम समझ सकते हो। लेकिन वह ऊर्जा का

अभाव है।तंत्र तुम्हें उच्चतर विश्राम का आयाम प्रदान करता है। पति- पत्नी एक दूसरे में विलीन होकर एक दूसरे को शक्ति प्रदान करते है। तब वे एक वर्तुल बन जाते है और उनकी ऊर्जा वर्तुल में घूमने लगती है। वह दोनों एक दूसरे को जीवन ऊर्जा दे रहे है ,नव जीवन दे रहे है। इसमे ऊर्जा का ह्रास नहीं होता है। वरन उसकी वृद्धि होती है। क्योंकि विपरीतलिंगी के साथ संपर्क के द्वारा तुम्हारा प्रत्येक कोश ऊर्जा से भर जाता है ;उसे चुनौती मिलती है। अगर ऊर्जा नष्ट होती है ; तब अग्नि नहीं बचती। तुम कुछ प्राप्त किए बिना ऊर्जा खो देते हो।

9-यदि ऊर्जा को फेंका न जाए तो मिलन ध्यान बन जाता है। और तुम पूर्ण हो जाते हो। इसके द्वारा तुम्हारा विभाजित व्यक्तित्व अविभाजित हो जाता है। अखंड हो जाता है। चित की सब रूग्णता इस विभाजन से पैदा होती है। और जब तुम जुड़ते हो, अखंड होते हो तो तुम फिर बच्चे हो जाते हो,निर्दोष हो जाते हो।और एक बार अगर तुम इस निर्दोषता को उपलब्

हो गए तो फिर तुम अपने समाज में उसकी जरूरत के अनुसार जैसा चाहो वैसा व्यवहार कर सकते हो। लेकिन तब तुम्हारा यह व्यवहार महज अभिनय होगा, तुम उससे ग्रस्त नहीं होगे। तब यह एक जरूरत है जिसे तुम पूरा कर रहे हो। तब तुम उसमे नहीं हो। तुम मात्र एक अभिनय कर रहे हो। तुम्हें झूठा चेहरा लगाना होगा। क्योंकि तुम एक झूठे संसार में रहते हो। अन्यथा संसार तुम्हें कुचल देगा...मार डालेगा।

10-हमने अनेक सच्चे चेहरों को मारा है। हमने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, क्योंकि वे सच्चे मनुष्य की तरह व्यवहार करने लगे थे। झूठा समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है। हमने सुकरात को जहर दे दिया। क्योंकि वह भी सच्चे मनुष्य की तरह पेश आने लगे थे। समाज जैसा चाहे वैसा करो, अपने लिए और दूसरों के लिए व्यर्थ की झंझट मत पैदा करो। लेकिन जब तुमने अपने सच्चे स्वरूप को जान लिया, उसकी अखंडता को पहचान लिया तो यह झूठा समाज तुम्हें फिर रूग्ण नहीं कर सकता, विक्षिप्त नहीं कर सकता।‘’प्रेम-आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक अग्नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।परन्तु‘’अग्नि पर अवधान केवल वही साधक कर सकता है ;जिसकी ऋतम्भरा जाग्रत हो।

11-बुद्धि चार प्रकार की होती है-

1)विवेक बुद्धि

2) मेधा बुद्धि

3) ऋतम्भरा बुद्धि

4) प्रज्ञा बुद्धि

12-हमारा विज्ञानं दो प्रकार का होता है पहला भौतिक विज्ञानं और दूसरा आध्यात्मिक विज्ञानं । भौतिक विज्ञानं को समझने तथा रिसर्च करने के लिए हमें विवेक बुद्धि और मेधा बुद्धि की आवश्यकता होती है तथा आध्यात्मिक विज्ञानं में घुसने के लिये

हमें ऋतम्बरा और प्रज्ञा बुद्धि की आवस्यकता होती है।मेधावी बुद्धि उसको कहते है जिसके आने के पश्चात मानव के जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जाग्रत हो जाते है । मेधावी बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है ।ऋतम्भरा बुद्धि उसको कहते है जब मानव योगी और जिज्ञासु बनने के लिए परमात्मा की गोद में जाने के लिए लालयित होता है तो वही मेधावी बुद्धि , ऋतम्भरा बुद्धि बन जाती है । पांचो प्राण ऋतम्भरा बुद्धि के अधीन हो जाते है । योगी जब इन पांचो प्राण को अपने अधीन करके उनसे मिलान कर लेता है तो आत्मा इन प्राणो पर सवार हो जाता है और सर्वप्रथम मूलाधार में रमण करता है ।

13-अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है।

बुद्धि और मेधा बुद्धि हमें यन्त्र विज्ञानं के सहारे ग्रहों तक पहुंचा देती है तथा ऋतम्भरा बुद्धि और प्रज्ञा बुद्धि हमें गृह मंडल से

आगे क्या है ; उस क्षेत्र की जानकारी देती हैं। ऋतम्भरा बुद्धि 5 इंद्री और 5 प्राणो को एक सूत्र में बाँध कर उन पर सवार होकर अंतरिक्ष में रमन करती है । और ऋतम्भरा बुद्धि जानकारी देती है कि अंतरिक्ष लोक में क्या है। इसके बाद काम शुरू

होता है प्रज्ञा बुद्धि का ।प्रज्ञा बुद्धि ऋतम्भरा बुद्धि को छोड़ 3 नाड़ियों इडा, पिंगला और सुषुम्ना पर सवार होकर कुंडली को जागृत करती हुई ब्रह्मरन्द्र को पार करती हुई जब समाधि में लीन हो जाती है।तो प्रज्ञा बुद्धि ही.. फिर वहाँ क्या हो रहा है ;उसकी जानकारी देती है ।ऋतम्भरा बुद्धि और प्रज्ञा बुद्धि वाले साधक ही ऊर्ध्वरेता हो सकते है और समाधि में जा सकते है।

ऊर्ध्वरेता बनना अर्थात् जीवन को, ओज को अपने उद्गम स्थल ललाट में लाना, जहाँ से वह मूलाधार तक आया था, योग विद्या का काम है. कुण्डलिनी साधना में विभिन्न प्राणायाम साधनाओं द्वारा सूर्य चक्र की ऊष्मा को प्रज्ज्वलित कर इसी वीर्य को पकाया जाता है और उसे सूक्ष्म शक्ति का रूप दिया जाता है, तब फिर उसकी प्रवृत्ति ऊर्ध्वगामी होकर मेरु दण्ड से ऊपर चढ़ने लगती है. साधक उसे क्रमशः अन्य चक्रों में ले जाता हुआ फिर से ललाट में पहुँचाता है. शक्ति बीज का मस्तिष्क में पहुँच जाना और सहस्रार चक्र की अनुभूति कर लेना ही ब्रह्म निर्वाण है.

स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे कि जैसे दीपक का तेल बत्ती के ऊपर चढ़कर प्रकाश के रूप में परिणत होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अंदर का वीर्य तत्व सुषुम्ना  नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिवर्तित हो जाता है. रेतस का जो तत्व रति (काम, यौन संबंध) बनाने के समय काम में लगता है, जितेन्द्रिय होने पर वही तत्व, प्राण, मन और शरीर की शक्तियों को पोषण देने वाले एक दूसरे ही तत्व में बदल जाता है

कोई भी इंसान भौतिक, आध्यात्मिक या किसी भी स्तर पर कितना आगे जा सकता है, यह बुनियादी तौर पर इस बात पर निर्भर करता है कि अपने भीतर मौजूद ऊर्जा की कितनी मात्रा वह इस्तेमाल कर सकता है। यहां बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनके पास काफी ऊर्जा है, लेकिन उनके भीतर इतना विवेक या फिर कोई ऐसा सिस्टम नहीं है, जो इस ऊर्जा को एक तरह की निजी शक्ति में बदल दे। शक्ति के बारे में लोगों का यह सोचना उनकी सबसे बड़ी भूल है कि यह दूसरों पर इस्तेमाल करने के लिए है। शक्ति का आशय खुद आपसे है, शक्ति आपके अपने बारे में है। आप के अंदर शक्ति कितनी सक्रिय है, इससे न सिर्फ आपके जीवन की तीव्रता व गहराई तय होती है, बल्कि आप जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कितने प्रभावशाली होंगे, यह भी तय होता है।

*** ब्रह्मचर्य - वीर्य रक्षण - योग-साधना ***
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1. वीर्य के बारें में जानकारी -
आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में सात धातु होते हैं- जिनमें अन्तिम धातु वीर्य (शुक्र) है। वीर्य ही मानव शरीर का सारतत्व है।
40 बूंद रक्त से 1 बूंद वीर्य होता है।
एक बार के वीर्य स्खलन से लगभग 15 ग्राम वीर्य का नाश होता है । जिस प्रकार पूरे गन्ने में शर्करा व्याप्त रहता है उसी प्रकार वीर्य पूरे शरीर में सूक्ष्म रूप से व्याप्त रहता है।
सर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते है ।।
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2. वीर्य को पानी की तरह रोज बहा देने से नुकसान -
शरीर के अन्दर विद्यमान ‘वीर्य’ ही जीवन शक्ति का भण्डार है।
शारीरिक एवं मानसिक दुराचर तथा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक मैथुन से इसका क्षरण होता है। कामुक चिंतन से भी इसका नुकसान होता है।
मैथून के द्वारा पूरे शरीर में मंथन चलता है और शरीर का सार तत्व कुछ ही समय में बाहर आ जाता है।
रस निकाल लेने पर जैसे गन्ना छूंछ हो जाता है कुछ वैसे ही स्थिति वीर्यहीन मनुष्य की हो जाती है। ऐसे मनुष्य की तुलना मणिहीन नाग से भी की जा सकती है। खोखला होता जाता है इन्सान ।
स्वामी शिवानंद जी ने मैथुन के प्रकार बताए हैं जिनसे बचना ही ब्रह्मचर्य है -
1. स्त्रियों को कामुक भाव से देखना।
२. सविलास की क्रीड़ा करना।
3. स्त्री के रुप यौवन की प्रशंसा करना।
4. तुष्टिकरण की कामना से स्त्री के निकट जाना।
5. क्रिया निवृत्ति अर्थात् वास्तविक रति क्रिया।
इसके अतिरिक्त विकृत यौनाचार से भी वीर्य की भारी क्षति हो जाती है। हस्तक्रिया आदि इसमें शामिल है।
शरीर में व्याप्त वीर्य कामुक विचारों के चलते अपना स्थान छोडऩे लगते हैं और अन्तत: स्वप्रदोष आदि के द्वारा बाहर आ जाता है।
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य रक्षा से है। यह ध्यान रखने की बात है कि ब्रह्मचर्य शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार से होना जरूरी है। अविवाहित रहना मात्र ब्रह्मचर्य नहीं कहलाता।
धर्म कर्तव्य के रूप में सन्तानोत्पत्ति और बात है और कामुकता के फेर में पडक़र अंधाधुंध वीर्य नाश करना बिलकुल भिन्न है।
मैथुन क्रिया से होने वाले नुकसान निम्रानुसार है-
* शरीर की जीवनी शक्ति घट जाती है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
* आँखो की रोशनी कम हो जाती है।
* शारीरिक एवं मानसिक बल कमजोर हो जाता है।
* जिस तरह जीने के लिये ऑक्सीजन चाहिए वैसे ही ‘निरोग’ रहने के लिये ‘वीर्य’।
* ऑक्सीजन प्राणवायु है तो वीर्य जीवनी शक्ति है।
* अधिक मैथुन से स्मरण शक्ति कमजोर हो जाता है।
* चिंतन विकृत हो जाता है।
वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं -
चेहरे पर मुँहासे , नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, दुर्बलता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।
अगर ग्रुप में किसी भाई को ये समस्याएँ हैं तो उपाय भी लिख रहा हूँ -
लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें।
ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा।
यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही, व ये रोग भी दूर होंगे समय के साथ ।।
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3. वीर्य रक्षण से लाभ -
शरीर में वीर्य संरक्षित होने पर आँखों में तेज, वाणी में प्रभाव, कार्य में उत्साह एवं प्राण ऊर्जा में अभिवृद्धि होती है।
ऐसे व्यक्ति को जल्दी से कोई रोग नहीं होता है उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है ।
पहले के जमाने में हमारे गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य अनिवार्य हुआ करता था। और उस वक्त में यहाँ वीर योद्धा, ज्ञानी, तपस्वी व ऋषि स्तर के लोग हुए ।
भगवान बुद्ध ने कहा है - ‘‘भोग और रोग साथी है और ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है।’’
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है - ‘‘जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषुम्रा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान-दीप्ति में परिणित हो जाता है।
पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।
भगवान शंकर ने कहा है-
'इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान महिमा हुई है।'
कुछ उपाय -
ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने की आवश्यकता है।
भोजन पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए।
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1. प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ।
2. तेज मिर्च मसालों से बचें। शुद्ध सात्विक शाकाहारी भोजन करें।
3. सभी नशीले पदार्थों से बचें।
4. गायत्री मन्त्र या अपने ईष्ट मन्त्र का जप व लेखन करें।
5. नित्य ध्यान (मेडिटेशन) का अभ्यास करें।
6. मन को खाली न छोड़ें किसी रचनात्मक कार्य व लक्ष्य से जोड़ रखें।
7. नित्य योगाभ्यास करें। निम्न आसन व प्राणायाम अनिवार्यत: करें-
आसन-पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, भद्रासन प्राणायाम- भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम।
जो हम खाना खाते हैं उससे वीर्य बनने की काफी लम्बी प्रक्रिया है।खाना खाने के बाद रस बनता है जो कि नाडियों में चलता है।फिर बाद में खून बनता है।इस प्रकार से यह क्रम चलता है और अंत में वीर्य बनता है।
वीर्य में अनेक गुण होतें हैं।
क्या आपने कभी यह सोचा है कि शेर इतना ताकतवर क्यों होता है?वह अपने जीवन में केवल एक बार बच्चॉ के लिये मैथुन करता है।जिस वजह से उसमें वीर्य बचा रहता है और वह इतना ताकतवर होता है।
जो वीर्य इक्कठा होता है वह जरूरी नहीं है कि धारण क्षमता कम होने से वीर्य बाहर आ जायेगा।वीर्य जहाँ इक्कठा होता है वहाँ से वह नब्बे दिनों बाद पूरे शरीर में चला जाता है।
फिर उससे जो सुंदरता,शक्ति,रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि बढती हैं उसका कोई पारावार नहीं होता है।
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4. पत्नी का त्याग नहीं करना है -
ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है।
प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था।
ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा।
ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे।
कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी , कैसे ?
जाहिर है कि संभोग एक बार सन्तानोपत्ति के लिए किया गया था , आनंद के लिए नहीं ।
बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।
नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग के बिना सृष्टि का व्यवस्थाक्रम नहीं चल सकता।
दोनों का मिलन कामतृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता, वरन घर बसाने से लेकर व्यक्तियों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवित्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही सम्भव होता है।
अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की, पाप-पतन की जड़ है।
इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
इस सनक में लोग घर छोडक़र भागने में, स्त्री बच्चे को बिलखता छोडक़र भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े।
तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री।
जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है।
आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है।
बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है।
यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।
संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है ।
5. कमेन्टस में चर्चा -
एक बात ध्यान रखना है चर्चा में कि यहाँ माता-बहने भी हैं तो शब्दों का ख्याल रखना है , कामुक या गंदे शब्दों से परहेज करना है जहां तक हो सके ।
शादीशुदा व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य ना रख सकें तो भी संयमित जीवन अवश्य व्यतीत करना चाहिए ।
अगर कोई कहता है कि यौन इच्छाओं को दबाने से नपुंसकता आ जाएगी या दबाने से अच्छा है भोग लो , तो भाई ऐसा है कि उपर लिखी दिनचर्या अपनाओगे तो यौन इच्छाएँ पैदा ही नहीं होगी ,
मन निर्मल तो तन निर्मल ।।
अगर कोई कहे कि संभोग 8-10 दिन इतना ज्यादा करो कि घृणा हो जाए , तो भाई ऐसा है कि नसें उभर आएंगी , पीड़ा भी महसूस करोगे , संभोग से मन उचट भी जाएगा , परन्तु .....
महिने 2-3 में वीर्य बनने पर , कामुक साहित्य , नेट पर अशलील चीजें देखने पर , नारी को गलत भावना से देखने पर फिर से काम वेग उठेगा , तुम फिर बह जाओगे।
इसलिए ये सोचना बिल्कुल गलत होगा कि 8-10 दिन जमकर करो तो घृणा हो जाएगी सदा के लिए । ।
साधना पर भी प्रभाव पडेगा , जो व्यक्ति कामुक है , उसके विचार भी वैसे चलेंगे , ज्यादा वीर्य नष्ट करने से शरीर में शक्ति का संचार कम होगा , वह 1 घण्टे तक ज्ञान मुद्रा में ही नहीं बैठ पाएगा ।
6. योग और भोग में फर्क क्या है,आइये जानते हैं।
योग जो पुत्र उत्पत्ति के उद्देश्य से किया गया संभोग जिसे संयोग की संज्ञा दी गई है ,यह योग में आता है। और जो काम इच्छा की पूर्ति के लिए व अपने उच्छृखल मन को बिभिन्न शारीरीक कृड़ा से आनंदित व मनोनुकुल तृप्ति के उद्देश्य से किया गया संभोग यह भोग की संज्ञा में आता है । और यह मैथुन क्रिया 10 प्रकार की होती है 1*योनि मैथुन 2*गुदामैथुन 3*मुख मैथुन 4* स्पर्श मैथुन 5*हस्त मैथुन 6* दृष्टि मैथुन 7*कल्पना मैथुन8* स्वप्न मैथुन 9*वाक्य मैथुन (कह कर उत्तेजित हो बीर्य का नाश करना) 10*श्रोता मैथुन(सुन कर उत्तेजित हो बीर्य का नाश करना।
अर्थात जो इन 10 प्रकार के मैथुन क्रियाओं से वंचित है वह पूर्ण रुपेन ब्रह्मचर्य है अन्यथा ब्रह्मचर्य का दावा करना खोखली आडंबर है पर अल्पकालिक ब्रह्मचर्य का व्रत हम साधक में से कोई भी व्यक्ति निभा सकता है या निभाने की भरपूर कोशिश कर सकता है जैसी प्रबल चेष्टा होगी वैसी ही प्रबल उसका परिणाम होगा।
 
पहले सिद्धासन से बैठ जाओ यह केवल मात्र इस सिद्धासन का ही अभ्यास किया जाए तो यह भी वीर्य रक्षार्थ तथा स्वप्नदोष को दूर करने में अत्यंत हितकर है। उसके पश्चात बाह्य कुंभक प्रणाम करें। यह प्रणाम कैसे किया जाता है नीचे वीडियो दी गई है वहां से आप सीख सकते हैं। ऊर्ध्वरेता बनने के लिए इस प्राणायम के आदि से अंत तक एक विशेष क्रिया का ध्यान रखना तथा अभ्यास करना है।
श्वास निकालने से पूर्व जो नाभि के नीचे मूलाधार को खींचा था उसे निरंतर खींचे ही रखना है ढीला नहीं छोड़ना जितने समय तक अथवा जितने भी प्राणायाम करें मूलाधार को खींचे ही रखना है। पहले पहले कुछ कठिनाई प्रतीत होगी किंतु कुछ दिनों के अभ्यास से सरलता से कर सकेंगे।फिर मूलाधार का खींचने से तथा गूदा खींची रहेगी और वीर्य को जहां ठहरता है वह भी ऊपर को खींचा रहेगा। मूलाधार खींचते समय नाभि के नीचे ध्यान करें कि हम वीर्य को ऊपर की ओर खींच रहे हैं कुछ समय के अभ्यास के बाद वीर्य ऊपर को यथार्थ में खींचने तथा जाने लगेगा और आगे चलकर आप पूर्णरूपेण ऊर्ध्वरेता बन जाएंगे। वीर्य ऊपर को देने लगेगा वीर्य को धीरे आना ही बंद हो जाएगा फिर आपकी इच्छा के बिना एक बिंदु भी बाहर नहीं निकल सकता। स्वपनदोष पर में आदि रोग तो हो ही कैसे सकते हैं।
ऐसी अवस्था भी आवेगी कि कभी स्वप्नदोष होने का अवसर आएगा तो अर्ध निंद्रा में आप मूलाधार को खींच लेंगे आंखें खुल जाएंगी स्वप्नदोष से बच जाएंगे। आपकी विजय होगी आप की विजय और हार आपके अभ्यास के ऊपर हैं 1 वर्ष तक इस प्राणायम का अभ्यास करें उसके पश्चात द्वितीय आभ्यंतर प्राणायाम करें और इसी क्रम से तीसरा और चोथा प्राणायाम भी करे। सभी प्राणायाम का अभ्यास करने पर आप निश्चित रूप से ऊर्ध्वरेता हो जाएंगे।
इस प्राणायाम की जितनी प्रशंसा की जाए थोड़ी सब ऋषि यों और विशेषता पूज्य पाद महर्षि दयानंद की कृपा है जो ऐसी विद्या इस गिरे हुए संसार को मिली है।इस प्राणायाम के प्रभाव से जहां स्वप्नदोष आदि रोग दूर होंगे वहां शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर फिर बल पराक्रम और जितेंद्रयता की प्राप्ति होगी। इसका अभ्यास सब युवकों विद्यार्थियों तथा ब्रह्मचर्य प्रेमी स्त्री पुरुषों को करना। यह वीर्य रक्षा का सर्वोत्तम साधन और परम औषध है।इसके अतिरिक्त पद्मासन सिद्धासन सर्वांगासन उधर पद्मासन हलासन शीर्षासन योग मुद्रा आदि आसन तथा उज्जाई भस्त्रिका आदि प्राणायाम भी अति हितकारी होते हैं।यदि वीर्य विकार के कारण शरीर में जलन होती हो तो भस्त्रिका के स्थान पर शीतली प्राणायाम करना लाभदायक है।विचार शुद्ध पवित्र रखें लाल मिर्च गुड़ शक्कर प्याज लहसुन आदि उत्तेजक पदार्थों का सेवन ना करें प्राणायाम में विशेष सफलता पाने के इच्छुक नमक का सेवन भी छोड़ दें।
 

 

अपना जो काम-संस्थान है, वह जब सक्रिय होता है तभी वीर्य को बाहर धकेलता है | किन्तु निम्न प्रयोग द्वारा उसको सक्रिय होने से बचाना है |

 

      ज्यों ही किसी स्त्री के दर्शन से या कामुक विचार से आपका ध्यान अपनी जननेन्द्रिय की तरफ खिंचने लगे, तभी आप सतर्क हो जाओ | आप तुरन्त जननेन्द्रिय को भीतर पेट की तरफ़ खींचो | जैसे पंप का पिस्टन खींचते हैं उस प्रकार की क्रिया मन को जननेन्द्रिय में केन्द्रित करके करनी है | योग की भाषा में इसे योनिमुद्रा कहते हैं |

 

      अब आँखें बन्द करो | फिर ऐसी भावना करो कि मैं अपने जननेन्द्रिय-संस्थान से ऊपर सिर में स्थित सहस्रार चक्र की तरफ देख रहा हूँ | जिधर हमारा मन लगता है, उधर ही यह शक्ति बहने लगती है | सहस्रार की ओर वृत्ति लगाने से जो शक्ति मूलाधार में सक्रिय होकर वीर्य को स्खलित करनेवाली थी, वही शक्ति ऊर्ध्वगामी बनकर आपको वीर्यपतन से बचा लेगी | लेकिन ध्यान रहे : यदि आपका मन काम-विकार का मजा लेने में अटक गया तो आप सफल नहीं हो पायेंगे | थोड़े संकल्प और विवेक का सहारा लिया तो कुछ ही दिनों के प्रयोग से महत्त्वपूर्ण फायदा होने लगेगा | आप स्पष्ट महसूस करेंगे कि एक आँधी की तरह काम का आवेग आया और इस प्रयोग से वह कुछ ही क्षणों में शांत हो गया

जब भी काम का वेग उठे, फेफड़ों में भरी वायु को जोर से बाहर फेंको | जितना अधिक बाहर फेंक सको, उतना उत्तम | फिर नाभि और पेट को भीतर की ओर खींचो | दो-तीन बार के प्रयोग से ही काम-विकार शांत हो जायेगा और आप वीर्यपतन से बच जाओगे |

      यह प्रयोग दिखता छोटा-सा है, मगर बड़ा महत्त्वपूर्ण यौगिक प्रयोग है | भीतर का श्वास कामशक्ति को नीचे की ओर धकेलता है | उसे जोर से और अधिक मात्रा में बाहर फेंकने से वह मूलाधार चक्र में कामकेन्द्र को सक्रिय नहीं कर पायेगा | फिर पेट व नाभि को भीतर संकोचने से वहाँ खाली जगह बन जाती है | उस खाली जगह को भरने के लिये कामकेन्द्र के आसपास की सारी शक्ति, जो वीर्यपतन में सहयोगी बनती है, खिंचकर नाभि की तरफ चली जाती है और इस प्रकार आप वीर्यपतन से बच जायेंगे |

 

      इस प्रयोग को करने में न कोई खर्च है, न कोई विशेष स्थान ढ़ूँढ़ने की जरूरत है | कहीं भी बैठकर कर सकते हैं | काम-विकार न भी उठे, तब भी यह प्रयोग करके आप अनुपम लाभ उठा सकते हैं | इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, पेट की  बीमारियाँ मिटती हैं, जीवन तेजस्वी बनता है और वीर्यरक्षण सहज में होने लगता है |

ब्रह्मचर्य रक्षा हेतु मंत्र

      एक कटोरी दूध में निहारते हुए इस मंत्र का इक्कीस बार जप करें | तदपश्चात उस दूध को पी लें, ब्रह्मचर्य रक्षा में सहायता मिलती है | यह मंत्र सदैव मन में धारण करने योग्य है :

 

ॐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाय

मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा |

पादपश्चिमोत्तानासन

विधि: जमीन पर आसन बिछाकर दोनों पैर सीधे करके बैठ जाओ | फिर दोनों हाथों से पैरों के अगूँठे पकड़कर झुकते हुए सिर को दोनों घुटनों से मिलाने का प्रयास करो | घुटने जमीन पर सीधे रहें | प्रारंभ में घुटने जमीन पर न टिकें तो कोई हर्ज नहीं | सतत अभ्यास से यह आसन सिद्ध हो जायेगा | यह आसन करने के 15 मिनट बाद एक-दो कच्ची भिण्डी खानी चाहिए | सेवफल का सेवन भी फायदा करता है |

 

लाभ: इस आसन से नाड़ियों की विशेष शुद्धि होकर हमारी कार्यक्षमता बढ़ती है और शरीर की बीमारियाँ दूर होती हैं | बदहजमी, कब्ज जैसे पेट के सभी रोग, सर्दी-जुकाम, कफ गिरना, कमर का दर्द, हिचकी, सफेद कोढ़, पेशाब की  बीमारियाँ, स्वप्नदोष, वीर्य-विकार, अपेन्डिक्स, साईटिका, नलों की सुजन, पाण्डुरोग (पीलिया), अनिद्रा, दमा, खट्टी ड्कारें, ज्ञानतंतुओं की कमजोरी, गर्भाशय के रोग, मासिकधर्म की अनियमितता व अन्य तकलीफें, नपुंसकता, रक्त-विकार, ठिंगनापन व अन्य कई प्रकार की बीमारियाँ यह आसन करने से दूर होती हैं |

 

      प्रारंभ में यह आसन आधा मिनट से शुरु करके प्रतिदिन थोड़ा बढ़ाते हुए 15 मिनट तक कर सकते हैं | पहले 2-3 दिन तकलीफ होती है, फिर सरल हो जाता है |

 

      इस आसन से शरीर का कद लम्बा होता है | यदि शरीर में मोटापन है तो वह दूर होता है और यदि दुबलापन है तो वह दूर होकर शरीर सुडौल, तन्दुरुस्त अवस्था में आ जाता है | ब्रह्मचर्य पालनेवालों के लिए यह आसन भगवान शिव का प्रसाद है | इसका प्रचार पहले शिवजी ने और बाद में जोगी गोरखनाथ ने किया था |

 

पादांगुष्ठानासन

इसमें शरीर का भार केवल पाँव के अँगूठे पर आने से इसे 'पादाँगुष्ठानासन' कहते हैं। वीर्य की रक्षा व ऊर्ध्वगमन हेतु महत्त्वपूर्ण होने से सभी को विशेषतः बच्चों व युवाओं को यह आसन अवश्य करना चाहिए।

लाभः अखण्ड ब्रह्मचर्य की सिद्धि, वज्रनाड़ी (वीर्यनाड़ी) व मन पर नियंत्रण तथा वीर्यशक्ति को ओज में रूपांतरित करने में उत्तम है। मस्तिष्क स्वस्थ रहता है व बुद्धि की स्थिरता व प्रखरता शीघ्र प्राप्त होती है। रोगी-नीरोगी सभी के लिए लाभप्रद है।

रोगों में लाभः स्वप्नदोष, मधुमेह, नपुंसकता व समस्त वीर्योदोषों में लाभप्रद है।

http://www.hariomgroup.org/hariombooks_satsang_hindi/images/DivyaPrernaPrakash/image004.jpgविधिः पंजों के बल बैठ जायें। बायें पैर की एड़ी सिवनी (गुदा व जननेन्द्रिये के बीच का स्थान) पर लगायें। दोनों हाथों की उंगलियाँ ज़मीन पर रखकर दायाँ पैर बायीं जंघा पर रखें। सारा भार बायें पंजे पर (विशेषतः अँगुठे पर) संतुलित करके हाथ कमर पर या नमस्कार की मुद्रा में रखें। प्रारम्भ में कुछ दिन आधार लेकर कर सकते हैं। कमर सीधी व शरीर स्थिर रहे। श्वास सामान्य, दृष्टि आगे किसी बिंदु पर एकाग्र व ध्यान संतुलन रखने में हों। यही क्रिया पैर बदल कर भी करें।

समयः प्रारंभ में दोनों पैरों से आधा-एक मिनट। दोनों पैरों को एक समान समय देकर यथासंभव बढ़ा सकते हैं।

सावधानीः अंतिम स्थिती में आने की शीघ्रता न करें, क्रमशः अभ्यास बढ़ायें। इसे दिन भर में दो-तीन बार कभी भी कर सकते हैं। किन्तु भोजन के तुरन्त बाद न करें।

बुद्धिशक्तिवर्धक प्रयोगः

http://www.hariomgroup.org/hariombooks_satsang_hindi/images/DivyaPrernaPrakash/image006.jpgलाभः इसके नियमित अभ्यास से ज्ञानतन्तु पुष्ट होते हैं। चोटी के स्थान के नीचे गाय के खुर के आकार वाला बुद्धिमंडल है, जिस पर इस प्रयोग का विशेष प्रभाव पड़ता है और बुद्धि ब धारणाशक्ति का विकास होता है।

विधिः सीधे खड़े हो जायें। हाथों की मुट्ठियाँ बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें। सिर पीछे की तरफ ले जायें। दृष्टि आसमान की ओर हो। इस स्थिति में 25 बार गहरा श्वास लें और छोड़ें। मूल स्थिती में आ जायें।

मेधाशक्तिवर्धक प्रयोगः

लाभः इसके नियमित अभ्यास से मेधाशक्ति बढ़ती है।

http://www.hariomgroup.org/hariombooks_satsang_hindi/images/DivyaPrernaPrakash/image008.jpgविधिः सीधे खड़े हो जायें। हाथों की मुट्ठियाँ बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें।

आँखें बंद करके सिर को नीचे की तरफ इस तरफ झुकायें कि ठोढ़ी कंठकूप से लगी रहे और कंठकूप पर हलका-सा दबाव पड़े। इस स्थिती में 25 बार गहरा श्वास लें और छोड़ें। मूल स्थिती में आ जायें।

विशेषः श्वास लेते समय मन में '' का जप करें व छोड़ते समय उसकी गिनती करें।

ध्यान दें- प्रत्येक प्रयोग सुबह खाली पेट 15 बार करें, फिर धीरे-धीरे बढ़ाते हुए 25 बार तक कर सकते हैं।

शिश्नेन्द्रिय स्नान

     

      शौच के समय एवं लघुशंका के समय साथ में गिलास अथवा लोटे में ठंड़ा जल लेकर जाओ और उससे शिश्नेन्द्रिय को धोया करो | कभी-कभी उस पर ठंड़े पानी की धार किया करो | इससे कामवृत्ति का शमन होता है और स्वप्नदोष नहीं होता |

 

ब्रह्मचर्यासन के नियमित अभ्यास से ब्रह्मचर्य-पालन में खूब सहायता मिलती है अर्थात् इसके अभ्यास से अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है। इसलिए योगियों ने इसका नाम ब्रह्मचर्यासन रखा है। विधिः जमीन पर घुटनों के बल बैठ जायें। तत्पश्चात् दोनों पैरों को अपनी-अपनी दिशा में इस तरह फैला दें कि नितम्ब और गुदा का भाग जमीन से लगा रहे।

 

:::::::::::::::::साधना में अश्विनी मुद्रा और मूल बंध की भूमिका :::::::::::::::::::
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श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.| कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है, परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.| अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.| इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है.| यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं.| विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. |स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. |प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. |इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है,| उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें.| सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती.| मन एकाग्र होता है.| साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे.| जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.| इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.| मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है.| इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.| यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है.| यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है.| इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं. |साधना में अथवा ध्यान में अथवा आराधना में कुछ समय मन को एकाग्रकर इन क्रियाओं को करने से शक्ति प्राप्ति और उन्नति की मात्रा बढ़ जाती है |यही सब छोटी-छोटी तकनीकियाँ हैं जो गुरु लोग अपने शिष्यों को क्रमशः बताते हैं और उनकी सफलता को नियंत्रित और तीब्र करते रहते हैं ,तभी तो कहा जाता है की साधना -आराधना का मार्ग बिना गुरु के अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसा ही होता है |सामान्य साधक जो बिना गुरु के साधना करते हैं उनमे से अधिकतर को इन छोटी -छोटी तकनीकियों की जानकारी नहीं होती और बहुत परिश्रम पर भी उपलब्धि की मात्रा कम होती है ,कभी कभी तो शून्य होती है ,क्योकि वह तकनीकियों को जानते ही नहीं की ऊर्जा कैसे बढायें ,कैसे उसे उर्ध्वमुखी करें ,कैसे आने वाली ऊर्जा को नियंत्रित करें ,कैसे प्राप्त ऊर्जा को अपने में समाहित करें |साधना -आराधना केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करना ही नहीं है अथवा मंत्र जप नहीं है |यह ऊर्जा को नियंत्रित कर खुद में समायोजित कर उसका उपयोग साधना की उन्नति में करना है | ...............................................................................हर-हर महादेव 

कम देखें


साधारणतया योगासन भोजन के बाद नहीं किये जाते परंतु कुछ ऐसे आसन हैं जो भोजन के बाद भी किये जाते हैं। उन्हीं आसनों में से एक है ब्रह्मचर्यासन। यह आसन रात्रि-भोजन के बाद सोने से पहले करने से विशेष लाभ होता है।

ब्रह्मचर्यासन के नियमित अभ्यास से ब्रह्मचर्य-पालन में खूब सहायता मिलती है अर्थात् इसके अभ्यास से अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है। इसलिए योगियों ने इसका नाम ब्रह्मचर्यासन रखा है।

विधिः जमीन पर घुटनों के बल बैठ जायें। तत्पश्चात् दोनों पैरों को अपनी-अपनी दिशा में इस तरह फैला दें कि नितम्ब और गुदा का भाग जमीन से लगा रहे। हाथों को घुटनों पर रख के शांत चित्त से बैठे रहें।

लाभः इस आसन के अभ्यास से वीर्यवाहिनी नाड़ी का प्रवाह शीघ्र ही ऊर्ध्वगामी हो जाता है और सिवनी नाड़ी की उष्णता कम हो जाती है, जिससे यह आसन स्वप्नदोषादि बीमारियों को दूर करने में परम लाभकारी सिद्ध हुआ है।

जिन व्यक्तियों को बार-बार स्वप्नदोष होता है, उन्हें सोने से पहले पाँच से दस मिनट तक इस आसन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इससे उपस्थ इन्द्रिय में काफी शक्ति आती है और एकाग्रता में वृद्धि होती है।

 

 

ज्रोली मु्द्रा करने का तरीका (how to do vajroli mudra)

  • वज्रोली मुद्रा करने के लिए आप सबसे पहले किसी शांत वातावरण में योग मैट पर बैठ जाएं।
  • आप योग मैट पर पद्मासन या सुखासन में बैठ सकते हैं। 
  • इसके बाद अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रखें। 
  • अब अपनी दोनों आंखें बंद कर लें। नाक से लंबी गहरी सांस लेते रहें।  
  • सांस लेने के बाद इसे कुछ देर अपने अंदर रखें। इस दौरान अपने गुदाद्वार और अंडकोष के बीच के भाग को ऊपर की तरफ संकुचित करने की कोशिश करें। 
  • इस अवस्था में जितनी देर हो सके रुकें। इसके बाद सांस छोड़ दें। 
  • इस क्रिया को आप धीरे-धीरे 10-15 बार आसानी से रोजाना कर सकते हैं। 

वज्रोली मुद्रा के फायदे (vajroli mudra benefits in hindi)

  • अगर आप नियमित रूप से वज्रोली मुद्रा करते हैं, तो इससे आपका पाचन तंत्र हमेशा स्वस्थ रह सकता है। पाचन से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए आप वज्रोली मुद्रा कर सकते हैं। इसके नियमित अभ्यास से आप कब्ज, गैस आदि से बच सकते हैं।
  • वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने से कब्ज की समस्या से राहत मिल सकती है। अगर आपको कब्ज रहती है, तो इस स्थिति में आप वज्रोली मुद्रा कर सकते हैं। 
  • वज्रोली मुद्रा करने से यौन से जुड़ी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। लेकिन अगर आपको कोई गंभीर यौन समस्या है, तो एक्सपर्ट की राय पर ही इस आसन को करें।
  • नियमित रूप से वज्रोली मुद्रा करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत बनती है। वज्रोली मुद्रा शारीरिक शक्ति को बढ़ाने में मदद करता है।  
  • वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने से पेट में जमा टॉक्सिंस आसानी से निकल जाते हैं। इससे स्किन भी साफ होती है।
  • पेशाब से जुड़ी समस्याएं ठीक हो सकती है। वज्रोली मुद्रा करने से बार-बार पेशाब आने, रुक-रुक कर पेशाब आना और पेशाब करते समय जलन महसूस होना, जैसी समस्याएं ठीक हो सकती हैं।
  • वज्रोली मुद्रा मलद्वार मूत्र रोग जैसे बार-बार पेशाब आना, रुक-रुक कर पेशाब आना व पेशाब करते समय लिंग व योनी में जलन होना में भी कारगर हैं।

  • 4-इसके लिये संतमत में दो प्रमुख दोहे हैं ..

    4-1-आँख कान मुँह ढाँप के ,नाम निरंजन लेय । अंदर के पट तब खुलें,जब बाहर के देय ।

    4-2-तीनों बन्द लगाय कर , अनहद सुनो टंकोर । सहजो सुन्न समाधि में, नहिं सांझ नहिं भोर ।..

    अगोचरी मुद्रा कैसे करें?-

    07 FACTS;-

    1-अगोचरी मुद्रा अथार्त नाक से चार उँगली आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करके ध्यान लगाना।ॐ शरीर है ..निरंजन राम है ।ये मुद्रा कई तरह के नाम ध्यान में प्रयोग की जाती है ।

    2-अंगूठे के पास वाली दोनों उंगली ..दोनों कानों में इतनी टाइट ,मगर इतनी सहनीय घुसायें कि कान बाहरी आवाज के प्रति साउंडप्रूफ़ हो जाँय । अब बीच वाली दोनों बङी उंगली से , दोनों आँखे मूँदते हुये ,थोङा ही टाइट ( ताकि दुखने न लगें ) रखकर दबायें रहें ।

    3-शेष बची दोनों उंगलियाँ ,मुँह बन्द करते हुये होठों पर रखकर हल्का सा दबायें रहें। दोनों अंगूठे .. गर्दन पर या आपकी शरीर की बनाबट के अनुसार जहाँ भी सरलता से आरामदायक स्थिति में रख जाँय ..रख लें । इनके कहीं भी होने से कुछ ज्यादा अंतर नहीं होता । बस अभ्यास करते समय असुविधा और कष्ट महसूस न हो ।

    4-अब बस अंदर मष्तिष्क के बीचोबीच में स्वत सुनाई देने वाली आवाज को सुनते रहना है।यह बेहद आसानी से हरेक को पहली ही बार में सुनाई देगी ।शुरूआत में रथ के पहियों के दौङने की घङघङाहट सुनाई देगी।यह सूर्य का रथ है। इसको काल पहिया या चक्र भी कह सकते हैं। पर एक काल-चक्र दूसरा भी होता हैं। ये आवाज किसी किसी को घर की चाकी चलने से निकलने वाली आवाज जैसी भी सुनाई देती है ।

    5-वास्तव में सृष्टि में पाप पुण्य वाले दो पहियों का रथ निरंतर दौङता रहता है।और जीव इन्ही दोनों पहियों से बँधा अज्ञान में घिसटता रहता है । समदर्शी संत पाप पुण्य ..दोनों को छोड़कर इसी रथ के ऊपर बैठकर जीवन सफ़र तय करता है ।

    6-इसी स्थिति के लिये कबीर ने कहा है ''चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ''। अर्थात जीव अपने स्वरूप को भूलकर पाप पुण्य के दो पाट वाली चाकी में अनंतकाल से पिस रहा है।इस रथ की आवाज के बाद ,आपको किसी बाग में चहकती अनेकों चिङियों की आवाज सुनाई देगी।इसके बाद निरंजन यानी रामधुनि यानी ररंकार सुनाई देगा।यही ध्वनि रूपी असली राम का नाम है।

    7-शंकर जी ने पार्वती को यही अमरकथा सुनाई थी।यह घटाकाश में निरंतर गूंज रहा है । तुलसीदास ने रामायण में संकेत रूप में इसी के अखंड पाठ की सलाह दी थी ।कागभुशुंडि ने भी इसी के बारे में कहा था कि ''मैं निरंतर राम कथा का पान करता हूँ '।..इसके सुनते वक्त बस ये ध्यान रखना है कि मष्तिष्क के बीचोबीच वाली आवाज ही सुनें..दाँये बाँये की नहीं ।

    अगोचरी मुद्रा के लाभ :-
    03 FACTS;-
    1-ये मुद्रा बहुत तेजी से पाप भक्षण करती है और ईश्वर प्राप्ति में बहुत सहयोगी है।
    2-अगर मन अशांत हो तो यह बहुत ही लाभकारी मुद्रा है ,यह मन के विचारों की उथल-पुथल को शांत करती है |
    3-यह ध्यान की शक्ति में विकास करती है |
    2-उनमनी मुद्रा ;-

    04 FACTS;-
    1-उनमनी मुद्रा यानी भोंहो के मध्य ध्यान टिकाना । उनमनी याने संसार से उदासीनता का भाव । उन ( यानी प्रभु ) मनी ( मन लगा देना ) प्रभु से मन लगा देना । कहने का आशय यह है कि ध्यान के समय संसार से उदासीन होकर प्रभु से प्रेम भाव से मन को जोङना ।

    2-सहस्त्रार (जो सर की चोटी वाला स्थान है) में पूर्ण एकाग्रता के साथ मन को लगाने का अभ्यास करने से आत्मा परमात्मा की ओर गमन करने लगती है और व्यक्ति ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ने लगता है।

    3-शुरूआत करते समय खुली आँखों से कुछ देर तक नाक की नोक को देखते रहें । इससे सुरति एकाग्र होकर स्वतः ही नाक की जङ (बिन्दी या तिलक के ठीक नीचे का स्थान .. भ्रूमध्य के ठीक नीचे) पर पहुँच जायेगी । और आपकी आँखे स्वयं बन्द होती चली जायेंगी ।

    4-अपने को ढीला छोङ दें और इसके बाद कुछ न करते हुये जो हो रहा है उसको होने दें। कुछ अभ्यास के बाद इसी स्थिति के बीच लेट जाने का प्रयत्न करें। इसके लिये आरामदायक गद्दे पर अभ्यास करें ।इसकी सही क्रिया जान लेने पर यह मुद्रा आंतरिक लोकों की सहज यात्रा कराती है ।

    3)अश्विनी मुद्रा ;-

    03 FACTS;-

    1-जिस प्रकार से अश्व (घोडा) अपने गुदाद्वार को बार-बार सिकोड़ता एवं ढीला करने की क्रिया करता है उसी प्रकार से अपने गुदाद्वार से यह क्रिया करने से अश्वनी मुद्रा बनती है | इस मुद्रा का नाम भी इसी आधार पर पड़ा है | घोड़े में बल एवं फुर्ती का रहस्य यही मुद्रा है, इस क्रिया के करने के फलस्वरूप घोड़े में इतनी शक्ति आ जाती है कि आज के मशीनी युग में भी इंजन आदि की शक्ति अश्वशक्ति (HORSE POWER) से ही मापी जाती है.

    2-यह मूल बन्ध की प्रारम्भिक क्रिया है।प्राण शक्ति का क्षरण रोककर आध्यात्मिक प्रगति हेतु ऊपर की ओर दिशान्तरित कर देती है।अश्विनी मुद्रा इतनी आसान है कि इसको करने में किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती है।गुदाद्वारा को बार-बार सिकोड़ने और फैलाने की क्रिया को ही अश्विनी मुद्रा कहते हैं।इससे गुदा की पेशियाँ मजबूत होती हैं।

    3-दो विधि ;-

    02 FACTS;-

    1-कगासन में बैठकर (टॉयलैट में बैठने जैसी अवस्था) गुदाद्वार को अंदर खिंचकर मूलबंध की स्थिति में कुछ देर तक रहें और फिर ढीला कर दें। पुन: अंदर खिंचकर पुन: छोड़ दें। यह प्रक्रिया यथा संभव अनुसार करते रहें और फिर कुछ देर आरामपूर्वक बैठ जाएं।
    2-बिस्तर से उतरें, नीचे धरती पर चटाई-कम्बल आदि बिछा दे l पूर्व की तरफ सिर कर दे l श्वास बाहर फेंक दे , पेट को अन्दर-बाहर 2-5 बार करे l योनी को संकोचन-विस्तरण 25 बार करे l फिर श्वास ले l फिर श्वास बाहर फेंके और शौच जाने की जगह को, जैसे घोड़ा लीद छोड़ता है, संकोचन-विस्तरण करता है, ऐसे करे l ऐसे 4 श्वास लेकर करे तो 100 बार हो जायेगा l

    सावधानियां :-

    02 FACTS;-
    अश्वनी मुद्रा करते समय यदि मल-मूत्र का वेग हो तो इस वेग को रोकना नही चाहिए बल्कि इससे निवृत्त हो लेना चाहिए |
    यदि गुदाद्वार में किसी प्रकार का गंभीर रोग हो तो यह मुद्रा योग शिक्षक की सलाह अनुसार ही करें।

    अश्विनी मुद्रा करने का समय व अवधि -

    :02 FACTS;-
    1-सामान्य स्थिति में यह क्रिया लेटकर,बैठकर या चलते-फिरते कभी भी दिन में कई बार कर सकते हैं |
    2-अश्वनी मुद्रा ..एक बार में कम-से-कम 20-30 बार करनी चाहिए |

    लाभ : -
    02 FACTS;-

    1-अश्विनी मुद्रा के आध्यात्मिक लाभ :-
    अश्वनी मुद्रा से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। आपका मूलाधार केंद्र प्रभावशाली होगा l स्वाधिष्ठान केंद्र विकसित होगा l ध्यान भजन में बरकत होगी

    2-अश्विनी मुद्रा के चिकित्सकीय लाभ :-

    04 POINTS;-
    1-अश्वनी मुद्रा के निंरतर अभ्यास से गुदा से सम्बंधित समस्त रोग(जैसे बवासीर, अर्श, भगंदर आदि) नष्ट हो जाते हैं |
    2-इस मुद्रा को करने से दिमाग़ तेज होता है शरीर में ताकत बढ़ती है तथा उम्र लंबी होती है।वह आजीवन निरोग रहता है |
    3-शौच के समय यदि इस क्रिया को बार –बार किया जाये तो शौच खुलकर आता है |
    4-अश्विनी मुद्रा त्रिदोषनाशक है l बवासीर और कब्ज़ में बहुत लाभ होता है lइससे बुद्धि में इजाफा होता है l
    क्या अर्थ है सिद्धि/ मुद्रायें और परमात्मा का?-
    कबीर कहते हैं कि परमात्मा पाँचवें तत्व या पाँचों तत्व से भी परे हैं । अर्थात शरीर से बाहर है । ये सिर्फ़ समाधि द्वारा स्थिर हुयी विदेह अवस्था में संभव है । अथवा निजत्व में पूर्ण और निश्चयात्मक असंशय भाव से स्थिर होकर संभव है ।

    संत कबीर के अनुसार;-
    ''संतों शब्दई शब्द बखाना ।शब्द फांस फँसा सब कोई ।

    शब्द नहीं पहचाना ।प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते ।

    पाँचै शब्द उचारा ।सोहं निरंजन रंरकार शक्ति और ॐकारा ।

    पाँचों तत्व प्रकृति । तीनों गुण उपजाया ।

    लोक द्वीप चारों खान । चौरासी लख बनाया।

    शब्दइ काल कलंदर कहिये । शब्दइ भर्म भुलाया ।

    पाँच शब्द की आशा में । सर्वस मूल गंवाया ।

    शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के । बैठे मूंदे द्वारा

    शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण । शब्दइ वेद पुकारा ।

    शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर । बैठ करे स्थाना ?

    ज्ञानी योगी पंडित औ । सिद्ध शब्द में उरझाना ।

    पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा ।काया व्यास देव ताहि पहिचाना ।

    चांद सूर्य तिहि जाना । सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा ।

    भंवर गुफा स्थाना । बीच ठिकाना ।
    जो जिहसक आराधन करता । सो तिहि करत बखाना ।

    शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा । है नैनन के माँही ।

    ताको जाने गोरख योगी । महा तेज तप माँही ।

    शब्द ॐकार भूचरी मुद्रा । त्रिकुटी है स्थाना।

    शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना । सुन अनहद को काना ।

    शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा । दसवें द्वार ठिकाना।

    ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो । रंरकार पहिचाना ।

    शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा । बसे आकाश सनेही ।

    झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे । जाने जनक विदेही ।

    पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा । सो निश्चय कर जाना ।

    आगे पुरुष पुरान निःअक्षर । तिनकी खबर न जाना ?

    नौ नाथ चौरासी सिद्धि लो । पाँच शब्द में अटके

    मुद्रा साध रहे घट भीतर । फिर औंधे मुख लटके।

    पाँच शब्द पाँच है मुद्रा ।लोक द्वीप यम जाला ।

    कहैं कबीर अक्षर के आगे। निःअक्षर का उजियाला ।

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    भावार्थ;-

    05 FACTS;-
    1-सभी शब्द... नाम, धुनों आदि का वर्णन परमात्मा की प्राप्ति के लिये कर रहे हैं ।
    और इन्हीं नकली शब्द जाल में फ़ंस कर रह गये । असली शब्द या ‘वस्तु’ की तरफ़ किसी
    का ध्यान नही है।आदि सृष्टि के समय ब्रह्म ने इच्छा करते हुये 5 शब्दों को उत्पन्न किया - सोहं निरंजन रंरकार शक्ति और ॐकार ।
    2-फ़िर 5 तत्व और हरेक तत्व की 5-5 = 25 प्रकृति और 3 गुणों ( सत, रज, तम ) को
    उत्पन्न किया । फ़िर लोक, दीप, चार खाने ( अंडज, जरायुज, स्वेदज, वारिज ) और 84 लाख जीव जन्तुओं को बनाया ।शब्द को ही काल, खिलाङी कहिये और शब्द से ही
    समस्त भ्रम उत्पन्न हुआ।
    3-इन पाँच शब्दों के चक्कर में फ़ंसकर जीव अपना मूल परमात्मा को भूल गया ।
    यही शब्द ब्रह्म आत्मप्रकाश छुपाकर मुक्ति या परमात्म द्वार को बन्द कर स्थित हो गये।
    मनुष्य शरीर के बीच ( सभी आँखों से ऊपर ) हंस के 5 शब्द कृमशः निरंजन, ॐकार, सोहं, रंरकार, शक्ति और 5 मुद्रायें कृमशः चांचरी, भूचरी, अगोचरी, खेचरी, उनमुनी हैं ।
    4- चाचरी मुद्रा, दोनों आँखें बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर
    सिद्ध की जाती है । भूचरी मुद्रा, सोहं - हंसो अजपा जप को प्राण ( स्वांस ) के मध्य ध्यान में
    रखकर सिद्ध की जाती है । अगोचरी मुद्रा, दोनों कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनकर सिद्ध की जाती है ।
    5-खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र ( तालु ) और काग तक बारबार छुआकर पहुँचाकर सिद्ध की जाती है । यह मुद्रा हनुमान जी को सिद्ध थी । जिससे उन्हें उङने, छोटा -बङा शरीर आदि बना लेने की कई सिद्धियां प्राप्त थीं ।उनमनी मुद्रा में दृष्टि को भौंहों के मध्य टिकाकर मुद्रा सिद्ध की जाती है ।

    क्या है 5 हंसों की मुद्राएं ?-

    03 FACTS;-

    1-परमात्मा ने जैसे ब्रह्माण्ड की रचना की । ठीक उसी आकार में मनुष्य शरीर की रचना की ।योग स्थितियों के साक्षात्कार और प्राप्ति के लिये की गयी क्रिया अवस्था को मुद्रा कहते हैं ।पंच मुद्राओं को भी राजयोग का साधन मानते हैं ।वैसे यह मुद्राएं सिर्फ साधकों के लिए हैं जो कुंडलिनी जागरण कर सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं।

    2-खेचरी से स्वाद् अमृततुल्य होता है। भूचरी से प्राण-अपान वायु में एकता कायम होती है। चांचरी से आंखों की ज्योति बढ़ती है और ज्योतिदर्शन होते हैं। अगोचरी से आंतरिक नाद का अनुभव होता है और उन्मनी से परमात्मा के साथ ऐक्य बढ़ता है। उक्त सभी से पांचों इंद्रियों पर संयम कायम हो जाता है। ये है;–

    3-ये पांच प्रमुख मुद्राएं हैं- 1.खेचरी (मुख के लिए), 2.भूचरी (नाक के लिए), 3.चांचरी (आंख के लिए), 4.अगोचरी (कान के लिए), 5.उन्मनी (मस्तिष्क के लिए)।

    3-1- चाचरी ;-

    चाचरी मुद्रा, दोनों आँखें बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर सिद्ध की जाती है । सर्वप्रथम दृष्टि को नाक से चार अंगुल आगे स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिए। इसके बाद नासाग्र पर दृष्टि को स्थिर करें, फिर भूमध्य में दृष्टि स्थिर करने का अभ्यास करें। इससे मन एवं प्राण स्थिर होकर ज्योति का दर्शन होता है।

    3-2- भूचरी; -

    भूचरी मुद्रा, सोहं - हंसो ,अजपा जप को प्राण ( स्वांस ) के मध्य ध्यान में रखकर सिद्ध की जाती है ।भूचरी मुद्रा कई प्रकार के शारीरिक मानसिक कलेशों का शमन करती है। कुम्भक के अभ्यास द्वारा अपान वायु उठाकर हृदय स्थान में लाकर प्राण के साथ मिलाने का अभ्यास करने से प्राणजय होता है, चित स्थिर होता है तथा सुषुम्ना मार्ग से प्राण संस्पर्श के ऊपर उठने की संभावना बनती है।

    3-3- अगोचरी; -

    अगोचरी मुद्रा, दोनों कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनकर सिद्ध की जाती है ।शरीर के भीतर नाद में सभी इंद्रियों के साथ मन को पूर्णता के साथ ध्यान लगाकर; कान से भीतर स्थित नाद को सुनने का अभ्यास करना चाहिए। इससे ज्ञान एवं स्मृति बढ़ती है तथा चित्त एवं इंद्रियां स्थिर होती हैं।

    3-4- खेचरी; -

    03 POINTS;-

    1-खेचरी अथार्त जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर करना ।खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र ( तालु ) और काग तक बारबार छुआकर पहुँचाकर सिद्ध की जाती है । यह मुद्रा हनुमान जी को सिद्ध थी ।जिससे उन्हें उङने, छोटा बङा शरीर आदि बना लेने की कई सिद्धियां प्राप्त थीं

    2-इसके लिए जीभ और तालु को जोड़ने वाले मांस-तंतु को धीरे-धीरे काटा जाता है, अर्थात एक दिन जौ भर काट कर छोड़ दिया जाता है। फिर तीन-चार दिन बाद थोड़ा-सा और काट दिया जाता है। इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा काटने से उस स्थान की रक्त शिराएं अपना स्थान भीतर की तरफ बनाती जाती हैं। जीभ को काटने के साथ ही प्रतिदिन धीरे-धीरे बाहर की तरफ खींचने का अभ्यास किया जाता है।

    3-इसका अभ्यास करने से कुछ महिनों में जीभ इतनी लम्बी हो जाती है कि यदि उसे ऊपर की तरफ उल्टा करें तो वह श्वास जाने वाले छेदों को भीतर से बन्द कर देती है। इससे समाधि के समय श्वास का आना-जाना पूर्णतः रोक दिया जाता है।

    3-5- उनमनी; -

    उनमनी अथार्त द्रष्टि को भौंहों के मध्य टिकाना ।सहस्त्रार (जो सर की चोटी वाला स्थान है) में पूर्ण एकाग्रता के साथ मन को लगाने का अभ्यास करने से आत्मा परमात्मा की ओर गमन करने लगती है और व्यक्ति ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ने लगता है।

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    क्या है 5 परमहंसों की मुद्राएं ?-

    ये 5 विशेष और परमहंसों की मुद्राएं हैं । उनका साक्षात्कार प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है ।

    05 FACTS;-

    1-शाम्भवी ;- जीवों में संकल्प से प्रवेश कर उनके अन्तःकरण का अनुभव करना

    2- सनमुखी; - संकल्प से ही सभी कार्य होने लगे ।

    3- सर्वसाक्षी ;- स्वयं को, तथा परमात्मा को सबमें देखना ।

    4- पूर्णबोधिनी ;- जिसका विचार ( या इच्छा ) करता है । उसकी पूर्ति तथा बोध पल भर में ही हो जाता है । एक ही जगह स्थित सम्पूर्ण जगत की बात जानना ।

    5- उनमीलनी ;- अनहोने कार्य करने की सिद्धि ।उनमनी मुद्रा में दृष्टि को भौंहों के मध्य टिकाकर मुद्रा सिद्ध की जाती है ।


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